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“कांग्रेस मुक्त भारत” का नारा पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिया था, लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि यह नारा बीजेपी से ज्यादा इंडी एलायंस को पसंद आ रहा है, और वे इस पर काम कर रहे हैं। हाल के राजनीतिक घटनाक्रम और INDI Alliance (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव एलायंस) की रणनीतियाँ स्पष्ट रूप से संकेत देती हैं कि यह गठबंधन “कांग्रेस मुक्त भारत” की ओर अग्रसर है। यह दावा दिल्ली चुनावों की स्थिति में साफ नजर आता है, जहां गठबंधन के सभी प्रमुख दलों ने आम आदमी पार्टी (AAP) का खुला समर्थन किया है और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) को नजरअंदाज किया है।
इंडी एलायंस के प्रमुख दल
इंडी एलायंस में कई प्रमुख क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दल शामिल हैं, जैसे:
- समाजवादी पार्टी (सपा)
- तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी)
- राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) (शरद पवार के नेतृत्व में)
- राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी)
- जम्मू और कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस (जेकेएनसी) (ओमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में)
- शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे गुट)
भले ही ये दल भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के खिलाफ एकजुट हैं, लेकिन कांग्रेस को समर्थन देने में इनकी झिझक साफ दिखती है, यहां तक कि उन राज्यों में भी, जहां कांग्रेस की मजबूत उपस्थिति है।
दिल्ली चुनावों में इंडी एलायंस का AAP को समर्थन
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दिल्ली चुनावों में इंडी एलायंस की रणनीति इसका प्रमुख उदाहरण है। गठबंधन के किसी भी दल ने कांग्रेस को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन नहीं दिया। इसके बजाय, उन्होंने आप के पक्ष में समर्थन जताया।
- समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने इस नीति को स्पष्ट करते हुए कहा, “दिल्ली में AAP मजबूत है, और समाजवादी पार्टी ने इसे समर्थन देने का फैसला किया है। बीजेपी के खिलाफ लड़ रहे क्षेत्रीय दलों का समर्थन किया जाना चाहिए।” उन्होंने 2027 में उत्तर प्रदेश चुनावों के लिए भी इसी रणनीति का संकेत दिया।
- तृणमूल कांग्रेस के अभिषेक बनर्जी ने भी यही भावना व्यक्त की, यह कहते हुए कि गठबंधन के सदस्य प्रत्येक राज्य में सबसे मजबूत क्षेत्रीय दल का समर्थन करें। उन्होंने कहा, “जहां वे सत्ता में हैं, हम उनके साथ खड़े होंगे।”
- जम्मू और कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस के ओमर अब्दुल्ला ने माना कि आप, कांग्रेस और अन्य दलों को दिल्ली में बीजेपी का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने के लिए मिलकर काम करने की जरूरत है। हालांकि, उन्होंने यह भी संकेत दिया कि गठबंधन का ध्यान केवल संसदीय चुनावों तक सीमित हो सकता है, जिससे इसकी दीर्घकालिक स्थिरता पर सवाल उठते हैं।
कांग्रेस के लिए व्यापक प्रभाव
दिल्ली जैसे रणनीतिक राज्यों में कांग्रेस को किनारे करना पार्टी के लिए एक चुनौतीपूर्ण भविष्य का संकेत देता है। गठबंधन के अन्य दलों से कोई विशेष समर्थन न मिलने के कारण, कांग्रेस की चुनाव लड़ने की क्षमता कमजोर होती जा रही है। यह राहुल गांधी के लिए एक बड़ा सवाल खड़ा करता है: क्या उन्हें बीजेपी का मुकाबला करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए या इंडी एलायंस द्वारा पेश की गई आंतरिक चुनौतियों का समाधान करना चाहिए?
इसके अलावा, कांग्रेस की संगठनात्मक कमजोरियाँ अधिक स्पष्ट होती जा रही हैं। हाल के वर्षों में पार्टी अपनी जमीनी उपस्थिति को पुनर्जीवित करने में असफल रही है। गठबंधन की बदलती राजनीति के साथ तालमेल बिठाने में असमर्थता ने इसे और अधिक कमजोर बना दिया है।
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व्यापक तस्वीर: क्षेत्रीय प्रभुत्व
इंडी एलायंस की रणनीति अपने-अपने क्षेत्रों में मजबूत क्षेत्रीय दलों को सशक्त बनाने की है, जिससे कांग्रेस और अधिक हाशिए पर चली जाती है। पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और दिल्ली जैसे राज्य इसका उदाहरण हैं, जहां टीएमसी, डीएमके और आप जैसे दल राजनीतिक परिदृश्य पर हावी हैं। यह रणनीति बीजेपी के खिलाफ गठबंधन की लड़ाई को मजबूत करती है लेकिन कांग्रेस के प्रभाव को महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कमजोर करती है।
हालांकि, क्षेत्रीय प्रभुत्व पर केंद्रित यह रणनीति लंबे समय में गठबंधन के भीतर टकराव पैदा कर सकती है, क्योंकि व्यक्तिगत दल अपने हितों को सामूहिक लक्ष्यों से ऊपर रखते हैं।
कांग्रेस या राहुल गांधी की विफलता
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कांग्रेस और राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमताओं पर सवाल उठना कोई नई बात नहीं है। पार्टी लंबे समय से संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने और जमीनी स्तर पर प्रभाव बढ़ाने में नाकाम रही है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस न केवल चुनावी मोर्चे पर कमजोर नजर आई है, बल्कि गठबंधन सहयोगियों के साथ तालमेल बिठाने में भी असफल रही है। उनका नेतृत्व स्पष्ट दिशा और ठोस रणनीति की कमी को दर्शाता है, जो पार्टी की गिरती साख का मुख्य कारण है। इसके अलावा, कांग्रेस के भीतर गुटबाजी और अनुशासनहीनता ने पार्टी की छवि और प्रदर्शन को और नुकसान पहुंचाया है।
2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने केवल 44 सीटें जीतीं, जो उसके इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन था। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भी स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ, और पार्टी महज 52 सीटों तक सीमित रही। इस दौरान राहुल गांधी ने अमेठी जैसी पारंपरिक सीट भी खो दी, जो कांग्रेस के लिए एक बड़ा झटका था। राज्य स्तर पर भी कांग्रेस को लगातार हार का सामना करना पड़ा। 2014 के बाद से कांग्रेस ने महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, असम और कर्नाटक जैसे प्रमुख राज्यों में सत्ता गंवाई। 2022 और 2023 में कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के विधानसभा चुनाव जीते, लेकिन यह जीत पार्टी के राष्ट्रीय स्तर पर कमजोर प्रदर्शन को छिपा नहीं सकी।
इस अवधि में, कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे की कमजोरी, गुटबाजी, और स्पष्ट रणनीति की कमी पार्टी की विफलता के मुख्य कारण रहे। राहुल गांधी को ऐसे बयान देने से बचना चाहिए जो उन्होंने हाल ही में दिया, “फाइटिंग इंडियन स्टेट” इस तरह के बयान देकर वह खुद ही स्व-गोल कर लेते हैं, जिसका खामियाजा पूरी कांग्रेस को भुगतना पड़ता है। यदि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी समय रहते अपनी नीतियों और नेतृत्व शैली में सुधार नहीं करते, तो 2025 और आगे पार्टी के लिए और अधिक कठिन हो सकता है, जिस से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दिया हुआ नारा “कांग्रेस मुक्त भारत” सच साबित हो सकता है। क्योंकि इंडी एलायंस ही उन्हें किनारे करने पर लगा हुआ है, आप नेता अरविंद केजरीवाल तो कांग्रेस को इंडी एलायंस से बाहर निकालने तक की धमकी दे चुके हैं।
निष्कर्ष
इंडी एलायंस का “कांग्रेस मुक्त भारत” दृष्टिकोण स्पष्ट एजेंडा से अधिक रणनीतिक व्यावहारिकता पर आधारित है। क्षेत्रीय दलों को प्राथमिकता देकर यह गठबंधन बीजेपी के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करना चाहता है। हालांकि, यह रणनीति कांग्रेस को एक कठिन स्थिति में छोड़ देती है, जिससे गठबंधन में इसकी भूमिका और व्यापक राजनीतिक भविष्य पर सवाल उठते हैं।
भारत की राजनीति के बदलते परिदृश्य में, कांग्रेस को आत्ममंथन कर अपनी भूमिका को फिर से परिभाषित करना होगा। यदि पार्टी समय के साथ खुद को ढालने में विफल रहती है, तो यह न केवल इसकी प्रासंगिकता को कमजोर करेगा, बल्कि इंडी एलायंस के भीतर शक्ति संतुलन को भी बदल सकता है, जो अंततः देश की राजनीतिक कहानी को पुनः आकार दे सकता है।